BA Semester-5 Paper-1 Sanskrit - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2801
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन - सरल प्रश्नोत्तर

अध्याय - ९

श्रीमद्भगवतगीता : द्वितीय अध्याय

प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। श्रीमद्भगवतगीता : द्वितीय अध्याय

उत्तर -

श्रीमद्भगवतगीता : द्वितीय अध्याय

१.

कुतस्त्वा कश्मलमिंद विषये समुपस्थितुम्।
अनार्यजुष्टअस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥

प्रसंग - अर्जुन को मोह युक्त देखकर उन्हें समझाते हुए श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि -

व्याख्या - हे अर्जुन ! तुम्हें इस विषम परिस्थिति में यह मोह कहाँ से प्राप्त हुआ? वस्तुतः ऐसा आचरण कभी श्रेष्ठ पुरुषों ने नहीं किया न यह स्वर्ग का हेतु है और न ही यह यश प्रदान करने वाला ही है।

अर्थात् हे अर्जुन ! कुरुक्षेत्र के रणक्षेत्र में युद्ध जैसी विषम परिस्थिति में तुम्हारा यह मोह-माया से युक्त आचरण किसी भी दशा में उपयुक्त नहीं है। विषम परिस्थितियों में ऐसा आचरण कभी भी श्रेष्ठ व्यक्तियों ने नहीं किया। हे अर्जुन ! तुम्हारे द्वारा युद्ध न करने से न तुम्हें स्वर्ग मिलेगा एवं न ही यश।

शब्दार्थ - कुतः - कहाँ से कश्मलम् - मोह अस्वर्ग्यम् - स्वर्ग से रहित अकीति - यश से रहित त्वां - तुमको।
व्याकरण - कुतः किम् + तसिल् अर्जुन - सम्बोधन एकवचन का रूप समुपस्थितम् - सम् + उप + स्था + क्त स्वर्ग्यम् - स्वर्ग + यत्।

२..

क्लैव्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयं दौर्बल्यं व्यक्तवोत्तिष्ठ परन्तप ॥

 

प्रसंग - युद्ध से विरक्ति प्रदर्शित करने पर श्रीकृष्ण जी अर्जुन से कहते हैं कि - व्याख्या - हे अर्जुन ! नपुंसकता को प्राप्त मत हो यह नपुंसकता तुम्हारे लिए उचित नहीं है। हे शत्रुतापक अर्जुन ! हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।

अर्थात् हे अर्जुन ! युद्ध से विरक्ति संबन्धित तुम्हारा यह निर्णय उचित नहीं है। इससे तुम्हारे पौरुष का नहीं अपितु नपुंसकता का ज्ञान होता है। यह नपुंसकता युद्ध स्थल में उचित नहीं है अतः हृदय में आई हुई दुर्बलता का त्याग करके युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।

शब्दार्थ - पार्थ - पृथा पुत्र अर्जुन क्लैव्यं - नपुंसकता मा - नहीं गमः - जाओ नोपपद्यते- उचित नहीं परन्तप - शत्रु को ताप देने वाले।

व्याकरण - हृदय दौर्बल्यं - हृदयस्य दौर्बल्यं - हृदयस्य दौर्बल्यम् (षष्ठी तत्पुरुष) परन्तप-परान् इति शत्रून् तपति इति परन्तप ( सम्बोधन का रूप ) व्यक्तवा - क्यज् + क्तवा।

३.

न चैतद् विद्मः कतरन्नोगरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥

प्रसंग - पूर्व कथित प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए अर्जुन कहते हैं -

व्याख्या - हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना अथवा न करना क्या श्रेष्ठ है? हम यह भी नहीं जानते हैं कि युद्ध में हम विजय प्राप्त करेंगे अथवा वह। हम जिनको मारकर जीना भी नहीं चाहते हैं वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे समक्ष खड़े हैं।

अर्जुन अपने युद्ध-कर्म के प्रति सशंकित हैं। वस्तुतः विपत्तिकाल में धैर्यवान व्यक्तियों की बुद्धि भी मलिन हो जाती है। यहाँ अर्जुन भी जय-पराजय एवं धृतराष्ट्र के पुत्रों के सम्बन्ध में द्विविधा की स्थिति में पड़ गये हैं। उन्होंने कौरवों को न मारना ही उचित समझा है।

शब्दार्थ - न विद्म - नहीं जानता हूँ, मान् - जिन बन्धुओं को, हत्वा - मारकर धार्तराष्ट्राः - धृतराष्ट्र के पुत्र अवस्थिता - धृतराष्ट्र केसामने खडे हैं।

व्याकरण -
जिजीविषामः - जीव + सन् लट्लकार उत्तम पुरुष बहुवचन अवस्थिताः - अव + स्था + क्तु बहुवचन। धार्तराष्ट्रा - धृतराष्ट्र + अण् बहुवचन।

4.

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतसूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥

प्रसंग - अर्जुन के मोहजनित निर्णय एवं अर्जुन के वचनों की ओर ध्यान देकर अर्जुन को समझाते हुए एवं उन्हें युद्ध के लिए प्रेरित करते हुए श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि--

व्याख्या - हे अर्जुन! तुमने एक ओर तो अशोचनीय व्यक्तियों के लिए शोक किया और दूसरी ओर पण्डितों के वचनों को मुझसे ही कह रहे हो। पण्डित जन जिनकी मृत्यु हो गई है तथा जिनकी मृत्यु अभी नहीं हुई है उनके लिए शोक नहीं करते हैं।

अर्थात् अर्जुन विद्वतापूर्ण तर्क श्रीकृष्ण के सामने प्रस्तुत करते हैं तो श्रीकृष्ण उन्हें विद्वानों वाली भाषा में कहते हैं कि विद्वान जन्म एवं मृत्यु के सम्बन्ध में शोक नहीं करते हैं क्योंकि मृत्यु तो सुनिश्चित ही है।

शब्दार्थ - अशोच्यान् - चिन्तन के अयोग्य, अन्वशोच: - सोचते हो प्रज्ञावादान् - विद्वानों के वचन, भाषा से - बोलते हो पण्डिताः - विद्वान् गतासून- मृत अगतासून् - जीवित।

व्याकरण - अशोच्यान् - न शोच्यान् (नञ् तत्पुरुष)
प्रज्ञावादान् - प्रज्ञानां वादान् (षष्ठी तत्पुरुष)
पण्डिताः - पण्डित् + जस्।
गतास्न् -गताः असवः (प्राणाः) येषां ते (बहुब्रीहि )

५.

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चेव न भविष्यामः सर्वे वयमतः पदम् ॥

 प्रसंग - श्रीकृष्ण जी अब अर्जुन से व्यक्ति की नित्यता एवं अनित्यता के साथ-साथ ईश्वर की व्यापकता के सम्बन्ध में कहते हैं-chauhan

व्याख्या - न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था अथवा तुम नहीं थे अथवा ये राजागण नहीं थे और न ही ऐसा ही है कि हम सब आगे नहीं होंगे।

तात्पर्य यह है कि हे अर्जुन ! हम तुम तथा हमारे तुम्हारे सामने रणक्षेत्र में खड़े राजा गण प्रत्येक समय में थे किन्तु शरीर परिवर्तन होने के कारण हम सभी एक-दूसरे को पहचान नहीं पाते हैं अतः हे अर्जुन ! आत्मा नित्य है वह सदा रहती है तुम्हें उसके बारे में नहीं सोचना चाहिए।

शब्दार्थ - जातु - कभी आसी - थे जनाधिपाः - राजागण भविष्यामः- होगें, सर्वे - सभी।
व्याकरण - जनाधियाः - जनानां अधिपाः (षष्ठी तत्पुरुष)
अधिपः - अधि + पा + क
भविष्यामः- भू, लृट् उत्तम पुरुष बहुवचन।
सर्वे -सर्व + जश् (शी)।

६.

देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥

 

प्रसंग - शरीर के नाशवान एवं आत्मा के अनाशवान होने का वर्णन करते हुए श्री कृष्ण जी कहते हैं।

व्याख्या - जैसे जीवात्मा के इस शरीर में कुमार युवा एवं वृद्धावस्था आती है वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति भी होती है अतः शरीर एवं आत्मा के सम्बन्ध में धीर पुरुष सोचते नहीं हैं और न ही मोहित ही होते हैं।

जब शरीर में युवावस्था आती है तो कुमारावस्था चली जाती है। इसी प्रकार युवावस्था के जाने पर वृद्धावस्था आती है। इस प्रकार एक के जाने पर दूसरे का आगमन होता है। संसार का यही नियम है। प्रत्येक दिन के बाद रात्री एवं रात्रि के पश्चात् दिन होता है। कठोपनिषद् में जीवन की तुलना फसल से की गई है जो पककर काट ली जाती है उसी प्रकार मनुष्य भी मृत्यु प्राप्त करता है। धीर व्यक्ति इस सम्बन्ध में सोचते नहीं हैं।

शब्दार्थ - देहिनः - जीवात्मा में, देहे शरीर में जरा - वृद्धावस्था न मुह्यति - मोहित नहीं होता ,तथा - इसी प्रकार, धीर - धैर्यवान।

व्याकरण - देहिन्- देह + इन्, कौमार - कुमार + अण् यौवन - युवन् + अण् प्राप्ति - प्रा + आप् + क्तिन् मुह्यति मुह् + श्यन्  लट् लकार प्रथम पुरुष एकवचन।

७.

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समुदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥

प्रसंग - श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में यह बताया है कि मोक्ष के योग्य कौन होता है।

व्याख्या - हे पुरुष श्रेष्ठ अर्जुन ! जो व्यक्ति दुःख-सुख को समान समझता है। ऐसे धैर्यवान पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग विचलित (व्याकुल) नहीं करते ऐसे ही लोग मोक्ष के योग्य होते हैं।

इतना ही नहीं पार्थ, इस नश्वर संसार में सुख-दुःख समान रूप से आते हैं। केवल उनके वास्तविक स्वरूप को समझने की आवश्यकता होती है। क्योंकि सुख-दुःख तो मन के विकल्प हैं। परन्तु हे पार्थ ! इस सुख और दुःख के समान जो धैर्यवान व्यक्ति विचलित नहीं होता है। इस संसार में ऐसे ही लोग मोक्ष के लायक होते हैं।

शब्दार्थ - यं - जो हि - निश्चित व्यथयन्ते विचलित होते हैं। पुरुष - व्यक्ति सम-समान दुःख-सुखं . दुःख-सुख - धरं धैर्य सो - वह अमृतत्वाय मोक्ष के योग्य।

व्याकरण - अमृतत्वाय - अमृत + नत्वाय्।
तम् - तन + क्त।
कल्पते -कल्प + क्त।

8.

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥

 प्रसंग - परम तत्व की व्यापकता का निरूपण करते हुए श्री कृष्ण जी अर्जुन से कहते हैं कि

व्याख्या - (हे अर्जुन !) विनाश रहति तो तुम उसे जानो जिससे यह समग्र जगत् व्याप्त है क्योंकि इस अविनाशी का विनाश करने में कोई समर्थ नहीं है। इसका विनाश हो भी नहीं सकता है।

तात्पर्य यह है कि पूर्व श्लोक में जो यह कहा गया है कि सत् का अभाव एवं असत् की सत्ता है। उसी के अनुसार यहाँ 'सत्' तत्व आत्मा का स्वरूप विनाशरहित सिद्ध किया गया है। कहा भी गया है कि 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या। अतः शरीर के मरने पर भी सत् 'तत्व' आत्मा की सत्ता समाप्त नहीं होती है।

शब्दार्थ - अविनाशि - विनाश रहित, विद्धि - जानो, इदम् - यह जगत् सर्वम् - सम्पूर्ण, अव्यय - अविनाशी।

व्याकरण - अविनाशि + न + वि + नश् + जिनि।
विद्धि - विद् धातु से लोट् लकार मध्यम पुरुष एकवचन। ततम् - तन् + क्तः। कर्तुम् कृ + तुमुन्।

६.

य एनं वेत्ति हन्तारंयश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतौ नायं हन्ति न हन्यते ॥

 

प्रसंग - आत्मा की अमरता तथा उसकी व्यापकता का निरूपण करते हुए कहा गया है कि

व्याख्या - जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसे मारा गया मानता है वे दोनों ही प्रकार के लोग कुछ भी नहीं जानते हैं न यह आत्मा किसी को मारती है और न ही किसी के द्वारा मारी जाती है।

अर्थात् सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् में चैतन्य' तत्व ही अमर तथा अविनाशी है। यह ईश्वर का ही छोटा अंश है। कहा भी गया है कि 'ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखराशी। अर्थात् आत्मा अमर है। ईश्वर का अंश होने के कारण यह न ही किसी को मारती है और न ही किसी से मरती है किन्तु यदि कोई व्यक्ति इसे मरने या मारने वाला समझता है तो वह कुछ भी नहीं जानता है।

शब्दार्थ - एनं - इस आत्मा को, य - जो मन्यते - मानता है, न विजानीतः - नहीं जानता है,हन्ति - मारता है।

व्याकरण - हन्तारम् हन् + तृच् हतम् - हन् + क्त हन्ति - हन् + लट् लकार प्रथम पुरुष एकवचन। हन्यते - सन् + लट् लकार प्रथम पुरुष एकवचन (कर्मवाच्य )
विजानीतः - वि + ज्ञा लट् लकार प्रथम पुरुष द्विवचन।

१०.

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय् मवानि गृह्याति न रोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्जान्यन्यानि संयाति नवानि देही।

प्रसंग - विवेच्य श्लोक में आत्मा को शरीरधारी व्यक्ति तथा व्यक्ति के शरीर को वस्त्र मानते हुए कहा गया है कि -

व्याख्या - जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों का परित्याग कर अन्य नवीन वस्त्रों को धारण करता है उसी प्रकार जीवात्मा प्रारब्धवश पुराने पड़ चुके शरीर को छोड़कर दूसरे नवीन शरीर को धारण करती है।

तात्पर्य यह है कि आत्मा शरीर को उसी प्रकार परिवर्तित कर देता है जैसे व्यक्ति वस्त्रों को परिवर्तित कर देता है। जिस प्रकार पुराने वस्त्रों के त्याग का दुख मनुष्य को नहीं होता है अपितु नव वस्त्र धारण करने का हर्ष होता है वहीं स्वरूप आत्मतत्व का भी होता है उसे प्राचीन शरीर के छूटने का दुःख नहीं होता है।

शब्दार्थ - वासांसि - वस्त्रों को जीर्णानि - प्राचीन, यथा - जैसे, विहाय - त्यागकर, गृह्याति - ग्रहण करता है अपराजि - दूसरे।

व्याकरण -
देही देह् + णिनि विहाय - - वि + हा + ल्यप् जीर्णानि - जीर्ण + शस् ( नपुंसक लिङ्ग ) द्वितीया बहुवचन शरीराणि - शरीर + शस् (नपुंसकलिङ्ग) द्वितीया बहुवचन।

११.

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽम विकार्योऽयमुच्येते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥

प्रसंग - उक्त पद्य में आत्मा की नित्यता एवं सार्वभौमिकता का वर्णन किया गया है।

व्याख्या - यह आत्मा अव्यक्त (इन्द्रियों से अगोचर ), यह आत्मा अचिन्त्य ( मन का अविषय और यह आत्मा विकार रहित (परिवर्तन शून्य) कहा जाता है। इसलिए हे अर्जुन! इस आत्मा को ऐसा (पूर्वोक्त रूप से) जानकर (तू) शोक करने योग्य नहीं है अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है।

यहाँ आत्मा प्रकृति से भी विलक्षण है- इन्द्रियों का विषय न होने से प्रकृति तथा आत्मा दोनों अव्यक्त हैं। प्रकृति का कार्य ही व्यक्त होता है- प्रकृति नहीं। ऐसे ही आत्मा भी है। मन का विषय न होने से आत्मा तो अचिन्त्य है ही, प्रकृति भी अपने अव्यक्त कि वा प्रधान रूप से अचिन्त्य है। यदि इसे माया मान जाए तो भी यह अनिर्वचनीय एवम् अचिन्त्य है।

शब्दार्थ - अव्यक्तः = न व्यक्त (इन्द्रियों का अविषय), अयम् = आत्मा, अचिन्त्यः = मन का अविषय, अनुशोचितुम् = शोक न करो, न अर्हसि = योग्य नहीं हो।

व्याकरण - अव्यक्तः- न व्यक्त ( नञ् तत्पुरुष )। अचिन्त्यः - न + चिन्त् + यत्। अविकार्यः न• + वि + कृ + णिच् + यत्। उच्यते - ब्रू (वच्) + लट् आत्मनेपद, कर्मणियक्। अनुशोचितुम् - अनु + शुच् + तुमुन् (तुम्)।

१२.

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुव जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥

 

प्रसंग - शरीरधारी व्यक्ति के जन्म एवं मृत्यु के परस्पर सम्बन्ध को बताते हुए श्री कृष्ण जी कहते हैं कि -

व्याख्या - क्योंकि जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है तथा जिसकी मृत्यु हुई है उसका जन्म निश्चित है। अतः उपाय विहीन इस शरीर एवं आत्मा के सन्दर्भ में तुम शोक करने योग्य नहीं हो।

हे अर्जुन ! संसार में जितने भी प्राणी हैं उनकी मृत्यु इसलिए निश्चित है क्योंकि उनका जन्म हुआ है और मृत्यु के पश्चात् उनका जन्म भी निश्चित है। कठोपनिषद् में मनुष्य को फसल के समान पककर मरने वाला तथा पुनः उत्पन्न होने वाला कहा गया है।

अनुपश्य यथापूर्वे प्रतिपथ्य तथा परे।
सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिव जायते पुनः ।।
कठो. - १/१/६/

शब्दार्थ - जातस्य - जन्म लेने वाले की ध्रुवं - निश्चित है, हि - निश्चित है, हि क्योंकि अर्थे - विषय में, तस्मात् क्योंकि अर्थे विषय में, तस्मात् निश्चित है, हि क्योंकि अर्थे - विषय में, तस्मात् - अतः मृतस्य - मृत व्यक्ति की।

व्याकरण - जातस्य 'जन् + क्त' षष्ठी विभक्ति एकवचन। मृतस्य - मृ + क्त। षष्ठी विभक्ति एकवचन। अपरिहार्य - न परिहार्य = न + परि + ह् + ण्यत्। अर्थे - अर्थ शब्द से स. ए. व.।

१३.

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुतिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृत निश्चयः ॥

प्रसंग - युद्ध में पराजय और विजय के परिणाम को बताते हुए श्री कृष्ण जी अर्जुन से युद्ध का निश्चय करने को कहते हैं -

व्याख्या - यदि तुम इस धर्मयुद्ध में मृत्यु को प्राप्त होंगे तो स्वर्ग को प्राप्त करोगे और यदि शत्रु पर विजय प्राप्त करते हो तो पृथ्वी पर शासन करोगे। अतः हे अर्जुन ! युद्ध का निश्चय करके युद्ध के लिए खड़े हो जाओ।

अर्थात् हे अर्जुन ! युद्ध में परिणाम दो ही होते हैं जय अथवा पराजय। यदि तुम्हारी मृत्यु या पराजय हुई तो वीरगति मिलेगी और तुम स्वर्ग को प्राप्त करोगे किन्तु यदि तुम विजेता हुए तो पृथ्वी का भोग करोगे। अतः दोनों ही स्थितियाँ तुम्हारे अनुकूल हैं अतः तुम युद्ध का निश्चय करके खड़े हो जाओ।

शब्दार्थ - प्राप्स्यसि प्राप्त करोगे, स्वर्गं स्वर्ग को, जित्वा जीतकर भोक्ष्यसे भोग करोगे, महीं धरती को तस्मात् अतः।

व्याकरण - हतः हन् + क्त। भोक्ष्यसे - भुज् धातु से लृट् लकार म. पु. ए. व. कर्मवाच्य। उत्तिष्ठ -उत् + स्था लोट् लकार म. पु. ए. व.। युद्धाय - युद्ध शब्द से चतुर्थी एकवचन।

१४.

सुख-दुःखे समे कृत्वा, लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व् नैवं पापमवाप्स्यसि ॥

प्रसंग - सुख-दुख, लाभ-हानि एवं जय-पराजय जैसी विपरीत अवस्थाओं में साम्य रखने जैसी स्थितियों को बताते हुए अर्जुन से श्रीकृष्ण जी कहते हैं

व्याख्या - सुख एवं दुःख लाभ एवं हानि तथा जय एवं पराजय इन सबको समान समझकर तुम युद्ध में निमित्त तैयार हो जाओ। इस प्रकार का धर्म युद्ध करने से तुम पाप को प्राप्त नहीं होंगे।

श्रीकृष्ण जी अर्जुन से कहते हैं कि यदि तुम्हें स्वर्ग की इच्छा एवं पराजय की आकांक्षा न भी हो तब भी तुम जय-पराजय, लाभ-हानि एवं सुख-दुख को समान समझकर युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। दो विपरीत परिस्थितियों में साम्य रखने वाला व्यक्ति शान्ति को प्राप्त करता है और शान्ति ही आनन्द प्रदायिनी है अतः हे अर्जुन ! हृदय के भावों को शान्त करते हुए युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।

शब्दार्थ - कृत्वा - करके लाभालाभौ - लाभ एवं हानि, जयाजयौ - जय एवं पराजय युद्धाय - युद्ध के लिए, तत - इसलिए।

व्याकरण - युद्धाय - युद्ध + चतुर्थी एकवचन का डे---- य (ङेर्यः) कृत्वा कृ + क्त्वा। लाभालाभौ - लाभः च हानि: ( अलाभः) च (द्वन्द्व समास )
जयाजयौ - जयः च पराजयः च (द्वन्द्व समास) सुख-दुखे - सुखं च दुखं च (द्वन्द्व समास )

१५.

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यों भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥

 प्रसंग - श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भोगों से दूर रहकर योग क्षेम न चाहने की प्रेरणा दी है।

हिन्दी अनुवाद - हे अर्जुन चारों वेद तीनों गुणों के कार्यरूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं। इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन हर्ष - शोकादि द्वन्द्वों से रहति नित्य वस्तु परमात्मा में स्थित 'योग-क्षेम' को न चाहने वाला और स्वाधीन अन्तः करण बाला हो।

अर्थात् हे अर्जुन ! चारों वेदों एवं तीनों गुणों के कर्मरूप समस्त भोग एवं सुख-साधन इसी से प्रतिपादित होते हैं। इसलिए व्यक्ति को चाहिए कि आसक्ति विहीन होकर योग-क्षेम की चिन्ता न करते हुए शुद्ध अन्तः करण वाला होना चाहिए।

शब्दार्थ - त्रैगुण्यविषया तीनों गुणों वाला, निर्द्वन्द्वों द्वन्द्व से रहित नित्यसत्वस्थो नित्यवस्तु (परमात्मा में स्थित ) नियोग्यक्षेम - योग-क्षेम न चाहने वाला अत्मवन् - अन्तः करणा वाला।

व्याकरण - त्रैगुण्य विषया त्रैगुण्य + विष।
निस्त्रैगुण्यो - निः + त्रि + गुणैः।
निर्द्वन्द्वों - नि + द्वन्द्व ( द्वन्द्व समास )
अत्मवन - आ + त्म + वन।

१६.

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्।
मा कर्मफलहेतुर्भूमा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥

प्रसंग - कर्म की प्रधानता एवं फल की अनिच्छा का वर्णन करते हुए श्रीकृष्ण ने कहा है कि

व्याख्या - (हे अर्जुन !) तुम्हारा अधिकार मात्र कर्म करने में ही है फल की इच्छा में कभी नहीं। तुम अपने को कर्म-फल का हेतु भी मत समझो एवं तुम्हारी कर्म न करने में आसक्ति भी न हो।

अर्थात् मनुष्य के वश में अपने अनुसार कर्म करना ही है। वस्तुतः व्यक्ति को कर्मयोगी होना ही चाहिए। उसे मात्र अपने कर्म से ही संतुष्ट होना चाहिए। फल प्राप्त करना मनुष्य के अपने वश में नहीं है अतः उस पर ध्यान नहीं देना चाहिए। व्यक्ति यदि कोई कार्य लेता है तो उसे अहंकार नहीं करना चाहिए तथा भाग्याश्रित होकर कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए।

शब्दार्थ - ते तुम्हारा कर्मणि - कर्म करने में, फलेषु - परिणाम में कदाचन - कभी, मा- नहीं सङ्ग- आसक्ति।

व्याकरण -कर्मण्येव - कर्मणि + एव (यण् सन्धि ) फलेषु - फल शब्द से सप्तमी बहुवचन अस्तु - अस् धातु से लोट् लकार प्रथम पुरुष एकवचन।

१७.

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत् मत्परः।
वशेहि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।

 प्रसंग - स्थित प्रज्ञ की स्थिति एवं उसे ध्यान युक्त होने के परिणाम के बारे में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि -

व्याख्या - साधक व्यक्ति का कर्त्तव्य यह है कि वह उन समस्त इन्द्रियों को वशीभूत करके चित्त को संयमित करके मुझे स्वामी स्वीकार कर ध्यानावस्थित हो क्योंकि साधक के वश में इन्द्रियाँ होती हैं उसी की बुद्धि भी स्थिर होती है किसी असंयमी की नहीं।

तात्पर्य यह है कि जो साधक इन्द्रियों को अपने वश में कर ले अर्थात् जितेन्द्रिय हो जाए वही स्थिर प्रज्ञ है उसे यह चाहिए कि समाहित चित्त को परमात्मा में लगाये क्योंकि इन्द्रियों को वश में कर लेने वाले व्यक्ति को ही परमात्मा का दर्शन होता है किसी असंयत को नहीं।

शब्दार्थ - सर्वाणि - समस्त, संयम्य - नियन्त्रित करके, मत्वरः- मुझमें, तस्य - उसकी, प्रज्ञा - बुद्धि, वशे - नियन्त्रित।

व्याकरण - तानि तद् + जस् प्र. वि. व. व. न. लि.। सर्वाणि - सर्व + जस् प्र. वि. व. व. न. लि.। तस्य - तद् + ङस् ष. ए. व.। संयम्य - सम् + यम् + ल्यप्।

18.

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।

प्रसंग - स्थिर प्रज्ञ की स्थिति का वर्णन करते हुए श्रीकृष्ण जी अर्जुन से कहते हैं कि - व्याख्या और जिस प्रकार कछुआ अपने सम्पूर्ण अङ्गों को चारों ओर से समेट लेता है उसी प्रकार स्थिर प्रज्ञ व्यक्ति भी अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों को उनके विषयों से हटा लेता है और तब उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।

आत्मरक्षार्थ कछुआ संकट काल में अपने सम्पूर्ण अंगों को अपने कवच में समेट लेता है उसी प्रकार योगी अपनी इन्द्रियों को उनके विषयों से हटा लेता है। इसके पश्चात् वह व्यक्ति कामना या इच्छा रहित हो जाता है यही स्थिर बुद्धि वाले व्यक्ति की पहचान है।

शब्दार्थ - कूर्मः - कच्छप, अङ्गानि - अङ्गों को, सर्वः - सब ओर से, प्रज्ञा-बुद्धि, यदा- जब, तस्य - उसकी

व्याकरण - अङ्गानि - अङ्गा + शस् (द्वितीया विभक्ति बहुवचन) इन्द्रियाणि - इन्द्रिय + शस् (द्वितीया विभक्ति बहुवचन) प्रतिष्ठिता - प्र + तिष्ठ् (स्था) + क् + टाप्। तस्य -तद् शब्द से षु एकवचन।

१६.

क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृति विभ्रमः।
स्मृतिभ्रशांद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति।'

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - श्री कृष्ण जी अर्जुन से क्रोध के दुष्परिणामों की चर्चा करते हुए कहते हैं -

व्याख्या - क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है। मूढ़ता से स्मृति में भ्रम हो जाता है अर्थात् स्मरण शक्ति भ्रमित हो जाती है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि के नाश से यह पुरुष अपने श्रेय साधन अथवा स्वरूप स्थिति से गिर जाता है।

श्रीकृष्ण जी, अर्जुन के प्रति विषयासक्ति के कारण होने वाली दुर्दशा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि अन्तःकरण में क्रोध वृत्ति के जागते ही मनुष्य, मनुष्य नहीं रहता। वह पशु अथवा राक्षस की सी अवस्था में पहुँच जाता है। वह परिणाम पर विचार किए बिना ही किसी भी अमानवोचित एवं अनर्थकारी कार्य में लग जाता है। विवेकशून्य हो जाने से अत्यन्त गूढ़ भाव को प्राप्त हो जाता है। ऐसे मूढभाव के कारण उस क्रोधी व्यक्ति की वह सम्पूर्ण स्मृति छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाती है। स्मृति की ऐसी दुर्दशा से फिर बुद्धि के विनाश की भूमिका बनती है अर्थात् उसके अन्तःकरण से कर्तव्य-अकर्त्तव्य, न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म आदि का निश्चय करने वाला समस्त विवेक समाप्त हो जाता है। वह कर्तव्य को छोड़कर अकर्तव्य और धर्म को छोड़कर अधर्म करने लगता है। इस स्थिति से पतित होकर मनुष्य अन्ततः नाटकीय योनियों में जो गिरता है और यहीं आकर "बुद्धिनाश से वह सर्वथा नष्ट हो जाता है।' यह कथन चरितार्थ. हो जाता है।

शब्दार्थ - स्मृतिविभ्रमः = स्मरण शक्ति भ्रान्ति। संमोहात् = अविवेक। बुद्धिनाशः = मतिहानि।

व्याकरण - स्मृतिविभ्रमः = स्मृतेः विभ्रमः (ष. त.) बुद्धिनाशः = बुद्धेः नाशः (ष. त.) प्रणश्यतिः = प्र + नश् लट् प्र. पु. ए. व.।

२०.

विहाय कामान् यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥

सन्दर्भ - पूर्ववत्

प्रसंग - आसक्ति को त्यागकर पुरुष सभी प्रकार से आन्तरिक, वाह्य शान्ति को प्राप्त कर सकता है, इसी को उक्त श्लोक में स्पष्ट किया गया है।

व्याख्या - जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर, ममतारहित, अहंकार रहित और स्पृहाररहित हुआ लोक व्यवहार का पालन करता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है।

यहाँ स्पृहा से तात्पर्य सूक्ष्म कामना से है, अतएवं निःस्पृहा का अर्थ है सूक्ष्म कामना शून्य। पूर्ण शान्ति प्राप्ति के लिए कामना, स्पृहा और ममता इन तीनों का सर्वनाश आवश्यक है। इस प्रकार इस श्लोक में अर्जुन के स्थित प्रज्ञ विषयक प्रश्न का उत्तर देते हुए श्री कृष्ण ने स्पष्ट किया है कि पूर्वोक्त प्रकार से निर्मम, निष्काम, निःस्पृह और निरंहकार होकर विषयों में लोकसंग्रह दृष्टि से विचरने वाल स्थितप्रज्ञ पुरुष ही परमशान्ति स्वरूप परमात्मा को प्राप्त होता है, अन्य नहीं।

शब्दार्थ - यः पुमान = जो पुरुष, विहाय = त्यागकर, निर्ममः = ममतारहित, निरहंकार = अहंकार रहित, निःस्पृहः = स्पृहशून्य, अधिगच्छति = प्राप्त करना।

व्याकरण - विहाय = वि + हा + क्तवा ( ल्यप्)। निस्पृहाः = निर्गती स्पृहा यस्मात् यस्य वा सः (बहुव्रीहि समास)। निर्ममः = निर्गता ममता, निर्गतं ममत्वं वा यस्मात् यस्य वा सः। निरहंकारः = निर्गतः अहंकारः यस्मात् यस्य वा सः (बहुव्रीहि समास)।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- वेद के ब्राह्मणों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  2. प्रश्न- ऋग्वेद के वर्ण्य विषय का विवेचन कीजिए।
  3. प्रश्न- किसी एक उपनिषद का सारांश लिखिए।
  4. प्रश्न- ब्राह्मण साहित्य का परिचय देते हुए, ब्राह्मणों के प्रतिपाद्य विषय का विवेचन कीजिए।
  5. प्रश्न- 'वेदाङ्ग' पर एक निबन्ध लिखिए।
  6. प्रश्न- शतपथ ब्राह्मण पर एक निबन्ध लिखिए।
  7. प्रश्न- उपनिषद् से क्या अभिप्राय है? प्रमुख उपनिषदों का संक्षेप में विवेचन कीजिए।
  8. प्रश्न- संहिता पर प्रकाश डालिए।
  9. प्रश्न- वेद से क्या अभिप्राय है? विवेचन कीजिए।
  10. प्रश्न- उपनिषदों के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  11. प्रश्न- ऋक् के अर्थ को बताते हुए ऋक्वेद का विभाजन कीजिए।
  12. प्रश्न- ऋग्वेद का महत्व समझाइए।
  13. प्रश्न- शतपथ ब्राह्मण के आधार पर 'वाङ्मनस् आख्यान् का महत्व प्रतिपादित कीजिए।
  14. प्रश्न- उपनिषद् का अर्थ बताते हुए उसका दार्शनिक विवेचन कीजिए।
  15. प्रश्न- आरण्यक ग्रन्थों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- ब्राह्मण-ग्रन्थ का अति संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- आरण्यक का सामान्य परिचय दीजिए।
  18. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए।
  19. प्रश्न- देवता पर विस्तृत प्रकाश डालिए।
  20. प्रश्न- निम्नलिखित सूक्तों में से किसी एक सूक्त के देवता, ऋषि एवं स्वरूप बताइए- (क) विश्वेदेवा सूक्त, (ग) इन्द्र सूक्त, (ख) विष्णु सूक्त, (घ) हिरण्यगर्भ सूक्त।
  21. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त में स्वीकृत परमसत्ता के महत्व को स्थापित कीजिए
  22. प्रश्न- पुरुष सूक्त और हिरण्यगर्भ सूक्त के दार्शनिक तत्व की तुलना कीजिए।
  23. प्रश्न- वैदिक पदों का वर्णन कीजिए।
  24. प्रश्न- 'वाक् सूक्त शिवसंकल्प सूक्त' पृथ्वीसूक्त एवं हिरण्य गर्भ सूक्त की 'तात्त्विक' विवेचना कीजिए।
  25. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त की विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
  26. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त में प्रयुक्त "कस्मै देवाय हविषा विधेम से क्या तात्पर्य है?
  27. प्रश्न- वाक् सूक्त का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
  28. प्रश्न- वाक् सूक्त अथवा पृथ्वी सूक्त का प्रतिपाद्य विषय स्पष्ट कीजिए।
  29. प्रश्न- वाक् सूक्त में वर्णित् वाक् के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
  30. प्रश्न- वाक् सूक्त किस वेद से सम्बन्ध रखता है?
  31. प्रश्न- पुरुष सूक्त में किसका वर्णन है?
  32. प्रश्न- वाक्सूक्त के आधार पर वाक् देवी का स्वरूप निर्धारित करते हुए उसकी महत्ता का प्रतिपादन कीजिए।
  33. प्रश्न- पुरुष सूक्त का वर्ण्य विषय लिखिए।
  34. प्रश्न- पुरुष सूक्त का ऋषि और देवता का नाम लिखिए।
  35. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। शिवसंकल्प सूक्त
  36. प्रश्न- 'शिवसंकल्प सूक्त' किस वेद से संकलित हैं।
  37. प्रश्न- मन की शक्ति का निरूपण 'शिवसंकल्प सूक्त' के आलोक में कीजिए।
  38. प्रश्न- शिवसंकल्प सूक्त में पठित मन्त्रों की संख्या बताकर देवता का भी नाम बताइए।
  39. प्रश्न- निम्नलिखित मन्त्र में देवता तथा छन्द लिखिए।
  40. प्रश्न- यजुर्वेद में कितने अध्याय हैं?
  41. प्रश्न- शिवसंकल्प सूक्त के देवता तथा ऋषि लिखिए।
  42. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। पृथ्वी सूक्त, विष्णु सूक्त एवं सामंनस्य सूक्त
  43. प्रश्न- पृथ्वी सूक्त में वर्णित पृथ्वी की उपकारिणी एवं दानशीला प्रवृत्ति का वर्णन कीजिए।
  44. प्रश्न- पृथ्वी की उत्पत्ति एवं उसके प्राकृतिक रूप का वर्णन पृथ्वी सूक्त के आधार पर कीजिए।
  45. प्रश्न- पृथ्वी सूक्त किस वेद से सम्बन्ध रखता है?
  46. प्रश्न- विष्णु के स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  47. प्रश्न- विष्णु सूक्त का सार लिखिये।
  48. प्रश्न- सामनस्यम् पर टिप्पणी लिखिए।
  49. प्रश्न- सामनस्य सूक्त पर प्रकाश डालिए।
  50. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। ईशावास्योपनिषद्
  51. प्रश्न- ईश उपनिषद् का सिद्धान्त बताते हुए इसका मूल्यांकन कीजिए।
  52. प्रश्न- 'ईशावास्योपनिषद्' के अनुसार सम्भूति और विनाश का अन्तर स्पष्ट कीजिए तथा विद्या अविद्या का परिचय दीजिए।
  53. प्रश्न- वैदिक वाङ्मय में उपनिषदों का महत्व वर्णित कीजिए।
  54. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मन्त्र का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
  55. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् के अनुसार सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करने का मार्ग क्या है।
  56. प्रश्न- असुरों के प्रसिद्ध लोकों के विषय में प्रकाश डालिए।
  57. प्रश्न- परमेश्वर के विषय में ईशावास्योपनिषद् का क्या मत है?
  58. प्रश्न- किस प्रकार का व्यक्ति किसी से घृणा नहीं करता? .
  59. प्रश्न- ईश्वर के ज्ञाता व्यक्ति की स्थिति बतलाइए।
  60. प्रश्न- विद्या एवं अविद्या में क्या अन्तर है?
  61. प्रश्न- विद्या एवं अविद्या (ज्ञान एवं कर्म) को समझने का परिणाम क्या है?
  62. प्रश्न- सम्भूति एवं असम्भूति क्या है? इसका परिणाम बताइए।
  63. प्रश्न- साधक परमेश्वर से उसकी प्राप्ति के लिए क्या प्रार्थना करता है?
  64. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् का वर्ण्य विषय क्या है?
  65. प्रश्न- भारतीय दर्शन का अर्थ बताइये व भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषतायें बताइये।
  66. प्रश्न- भारतीय दर्शन की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि क्या है तथा भारत के कुछ प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदाय कौन-कौन से हैं? भारतीय दर्शन का अर्थ एवं सामान्य विशेषतायें बताइये।
  67. प्रश्न- भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषताओं की व्याख्या कीजिये।
  68. प्रश्न- भारतीय दर्शन एवं उसके भेद का परिचय दीजिए।
  69. प्रश्न- चार्वाक दर्शन किसे कहते हैं? चार्वाक दर्शन में प्रमाण पर विचार दीजिए।
  70. प्रश्न- जैन दर्शन का नया विचार प्रस्तुत कीजिए तथा जैन स्याद्वाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  71. प्रश्न- बौद्ध दर्शन से क्या अभिप्राय है? बौद्ध धर्म के साहित्य तथा प्रधान शाखाओं के विषय में बताइये तथा बुद्ध के उपदेशों में चार आर्य सत्य क्या हैं?
  72. प्रश्न- चार्वाक दर्शन का आलोचनात्मक विवरण दीजिए।
  73. प्रश्न- जैन दर्शन का सामान्य स्वरूप बताइए।
  74. प्रश्न- क्या बौद्धदर्शन निराशावादी है?
  75. प्रश्न- भारतीय दर्शन के नास्तिक स्कूलों का परिचय दीजिए।
  76. प्रश्न- विविध दर्शनों के अनुसार सृष्टि के विषय पर प्रकाश डालिए।
  77. प्रश्न- तर्क-प्रधान न्याय दर्शन का विवेचन कीजिए।
  78. प्रश्न- योग दर्शन से क्या अभिप्राय है? पतंजलि ने योग को कितने प्रकार बताये हैं?
  79. प्रश्न- योग दर्शन की व्याख्या कीजिए।
  80. प्रश्न- मीमांसा का क्या अर्थ है? जैमिनी सूत्र क्या है तथा ज्ञान का स्वरूप और उसको प्राप्त करने के साधन बताइए।
  81. प्रश्न- सांख्य दर्शन में ईश्वर पर प्रकाश डालिए।
  82. प्रश्न- षड्दर्शन के नामोल्लेखपूर्वक किसी एक दर्शन का लघु परिचय दीजिए।
  83. प्रश्न- आस्तिक दर्शन के प्रमुख स्कूलों का परिचय दीजिए।
  84. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। श्रीमद्भगवतगीता : द्वितीय अध्याय
  85. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता' द्वितीय अध्याय के अनुसार आत्मा का स्वरूप निर्धारित कीजिए।
  86. प्रश्न- 'श्रीमद्भगवद्गीता' द्वितीय अध्याय के आधार पर कर्म का क्या सिद्धान्त बताया गया है?
  87. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता द्वितीय अध्याय के आधार पर श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए?
  88. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय का सारांश लिखिए।
  89. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता को कितने अध्यायों में बाँटा गया है? इसके नाम लिखिए।
  90. प्रश्न- महर्षि वेदव्यास का परिचय दीजिए।
  91. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता का प्रतिपाद्य विषय लिखिए।
  92. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( आरम्भ से प्रत्यक्ष खण्ड)
  93. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं पदार्थोद्देश निरूपण कीजिए।
  94. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं द्रव्य निरूपण कीजिए।
  95. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं गुण निरूपण कीजिए।
  96. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं प्रत्यक्ष प्रमाण निरूपण कीजिए।
  97. प्रश्न- अन्नम्भट्ट कृत तर्कसंग्रह का सामान्य परिचय दीजिए।
  98. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन एवं उसकी परम्परा का विवेचन कीजिए।
  99. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के पदार्थों का विवेचन कीजिए।
  100. प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण को समझाइये।
  101. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के आधार पर 'गुणों' का स्वरूप प्रस्तुत कीजिए।
  102. प्रश्न- न्याय तथा वैशेषिक की सम्मिलित परम्परा का वर्णन कीजिए।
  103. प्रश्न- न्याय-वैशेषिक के प्रकरण ग्रन्थ का विवेचन कीजिए॥
  104. प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार अनुमान प्रमाण की विवेचना कीजिए।
  105. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( अनुमान से समाप्ति पर्यन्त )
  106. प्रश्न- 'तर्कसंग्रह ' अन्नंभट्ट के अनुसार अनुमान प्रमाण की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  107. प्रश्न- तर्कसंग्रह के अनुसार उपमान प्रमाण क्या है?
  108. प्रश्न- शब्द प्रमाण को आचार्य अन्नम्भट्ट ने किस प्रकार परिभाषित किया है? विस्तृत रूप से समझाइये।

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